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Tuesday, December 20, 2016

कर्म का फल

*☀  कर्म भोग  ☀*
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🔷  पूर्व जन्मों के कर्मों से ही हमें इस जन्म में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नि, प्रेमी-प्रेमिका, मित्र-शत्रु, सगे-सम्बन्धी इत्यादि संसार के जितने भी रिश्ते नाते हैं, सब मिलते हैं । क्योंकि इन सबको हमें या तो कुछ देना होता है या इनसे कुछ लेना होता है ।

♦ *सन्तान के रुप में कौन आता है ?*

🔷  वेसे ही सन्तान के रुप में हमारा कोई पूर्वजन्म का 'सम्बन्धी' ही आकर जन्म लेता है । जिसे शास्त्रों में चार प्रकार से बताया गया है --

🔷  *ऋणानुबन्ध  :* पूर्व जन्म का कोई ऐसा जीव जिससे आपने ऋण लिया हो या उसका किसी भी प्रकार से धन नष्ट किया हो, वह आपके घर में सन्तान बनकर जन्म लेगा और आपका धन बीमारी में या व्यर्थ के कार्यों में तब तक नष्ट करेगा, जब तक उसका हिसाब पूरा ना हो जाये ।

🔷  *शत्रु पुत्र  :* पूर्व जन्म का कोई दुश्मन आपसे बदला लेने के लिये आपके घर में सन्तान बनकर आयेगा और बड़ा होने पर माता-पिता से मारपीट, झगड़ा या उन्हें सारी जिन्दगी किसी भी प्रकार से सताता ही रहेगा । हमेशा कड़वा बोलकर उनकी बेइज्जती करेगा व उन्हें दुःखी रखकर खुश होगा ।

🔷  *उदासीन पुत्र  :* इस प्रकार की सन्तान ना तो माता-पिता की सेवा करती है और ना ही कोई सुख देती है । बस, उनको उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ देती है । विवाह होने पर यह माता-पिता से अलग हो जाते हैं ।

🔷  *सेवक पुत्र  :* पूर्व जन्म में यदि आपने किसी की खूब सेवा की है तो वह अपनी की हुई सेवा का ऋण उतारने के लिए आपका पुत्र या पुत्री बनकर आता है और आपकी सेवा करता है । जो  बोया है, वही तो काटोगे । अपने माँ-बाप की सेवा की है तो ही आपकी औलाद बुढ़ापे में आपकी सेवा करेगी, वर्ना कोई पानी पिलाने वाला भी पास नहीं होगा ।

🔷  आप यह ना समझें कि यह सब बातें केवल मनुष्य पर ही लागू होती हैं । इन चार प्रकार में कोई सा भी जीव आ सकता है । जैसे आपने किसी गाय कि निःस्वार्थ भाव से सेवा की है तो वह भी पुत्र या पुत्री बनकर आ सकती है । यदि आपने गाय को स्वार्थ वश पालकर उसको दूध देना बन्द करने के पश्चात घर से निकाल दिया तो वह ऋणानुबन्ध पुत्र या पुत्री बनकर जन्म लेगी । यदि आपने किसी निरपराध जीव को सताया है तो वह आपके जीवन में शत्रु बनकर आयेगा और आपसे बदला लेगा ।

🔷  इसलिये जीवन में कभी किसी का बुरा ना करें । क्योंकि प्रकृति का नियम है कि आप जो भी करोगे, उसे वह आपको इस जन्म में या अगले जन्म में सौ गुना वापिस करके देगी । यदि आपने किसी को एक रुपया दिया है तो समझो आपके खाते में सौ रुपये जमा हो गये हैं । यदि आपने किसी का एक रुपया छीना है तो समझो आपकी जमा राशि से सौ रुपये निकल गये ।

🔷  ज़रा सोचिये, "आप कौन सा धन साथ लेकर आये थे और कितना साथ लेकर जाओगे ? जो चले गये, वो कितना सोना-चाँदी साथ ले गये ? मरने पर जो सोना-चाँदी, धन-दौलत बैंक में पड़ा रह गया, समझो वो व्यर्थ ही कमाया । औलाद अगर अच्छी और लायक है तो उसके लिए कुछ भी छोड़कर जाने की जरुरत नहीं है, खुद ही खा-कमा लेगी और औलाद अगर बिगड़ी या नालायक है तो उसके लिए जितना मर्ज़ी धन छोड़कर जाओ, वह चंद दिनों में सब बरबाद करके ही चैन लेगी ।"

🔶  मैं, मेरा, तेरा और सारा धन यहीं का यहीं धरा रह जायेगा, कुछ भी साथ नहीं जायेगा । साथ यदि कुछ जायेगा भी तो सिर्फ *नेकियाँ* ही साथ जायेंगी । इसलिए जितना हो सके *नेकी* कर, *सतकर्म* कर ।

श्रीमद्भगवद्गीता ...🙏🌺🙏Om shanti with sweet smile....💐💐💐💐💐💐💐💐💐🙏🌹🙏🌹🙏 शैलेष सुरती

स्त्री के छू लैने से भी अपवित्र

स्त्री के छू लैने से भी अपवित्र--
आखिर ऐसी क्या बुराई है स्त्री में...
अभी जब मैं बम्बई था कुछ दिन पहले, एक
मित्र ने आकर मुझे खबर दी कि एक बहुत
बड़े संन्यासी वहां प्रवचन कर रहे है।
आपने उनके प्रवचन सुने होंगे, नाम तो
काही होगा। वह प्रवचन कर रहे
हैं। भगवान की कथा कर रहे हैं! या
कुछ कर रहे हैं, स्त्री
नहीं छू सकती हैं उन्हें!
एक स्री अजनबी
आयी होगी! उसने उनके पैर छू
लिए! तो महाराज भारी कष्ट में पड़ गये
हैं! अपवित्र हो गये है! उन्होने सात दिन का
उपवास किया है शुद्ध के लिए! जहा दस पन्द्रह
हजार स्रियां पहुंचती थीं,
वहाँ सात दिन के उपवास के कारण एक लाख स्रियां
इकट्ठी होने लगीं कि यह
आदमी असली साधु है!
स्रियां भी यही
सोचती है कि जो उनके छूने से अपवित्र हो
जायेगा, असली साधु है! हमने उनको
समझाया हुआ है। नहीं तो वहां एक
स्त्री भी नहीं
जानी थी फिर। क्योंकि
स्त्री के लिए भारी अपमान
की बात है।
लेकिन अपमान का खयाल ही मिट गया है।
लम्बी गुलामी अपमान के खयाल
मिटा देती है। लाख स्रियां वहां
इकट्ठी हो गयी है!
सारी बम्बई में यही चर्चा है
कि यह आदमी है असली
साधु! स्त्री के छूने से अपवित्र हो गया
है! सात दिन का उपवास कर रहा है! उन महाराज
को किसी को पूछना चाहिए, पैदा किस से हुए
थे? हड्डी, मांस, मज्जा किसने बनाया था?
वह सब स्त्री से लेकर आ गये हैं। और
अब अपवित्र होते है स्त्री के छूने से।
हद्द कमजोर साधुता है, जो स्त्री के छूने
से अपवित्र हो जाती है! लेकिन
इन्ही सारे लोगों की
लम्बी परपरा ने स्त्री को
दीन—हीन और
नीचा बनाया है। और मजा यह है—मजा
यह है, कि यह जो दीन—
हीनता की लम्बी
परपरा है, इस परंपरा को तो स्त्रियां ही
पूरी तरह बल देने में अग्रणी
है! कभी के मंदिर मिट जायें और
कभी के गिरजे समाप्त हो जायें—स्रियां
ही पालन पोषण कर रही
है मंदिरो, गिरजों, साधु, संतो—महंतों का। चार स्रियां
दिखायी पड़ेगी एक साधु के पास,
तब कही एक पुरुष दिखायी
पड़ेगा। वह पुरुष भी अपनी
पत्नी के पीछे बेचारा चला आया
हुआ होगा।
तीसरी बात मैं आप से यह
कहना चाहता हू कि जब तक हम
स्त्री—पुरुष के बीच के ये
अपमानजनक फासले, ये अपमानजनक दूरियां—कि छूने से
कोई अपवित्र हो जायेगा—नहीं तोड़ देते
हैं, तब तक शायद हम स्त्री को समान
हक भी नहीं दे सकते।
को—एजुकेशन शुरू हुई है। सैकड़ों विश्वविद्यालय,
महाविद्यालय को—एजुकेशन दे रहे हैं। लड़कियां
और लड़के साथ पढ़ रहे हैं। लेकिन बड़ी
अजीब—सी हालत
दिखायी पड़ती है। लड़के एक
तरफ बैठे हुए है! लड़कियां दूसरी तरफ
बैठी हुई हैं! बीच में पुलिस
की तरह प्रोफेसर खड़ा हुआ है!
यह कोई मतलब है? यह कितना अशोभन है,
अनकल्वर्ड है। को—एजुकेशन का अब एक
ही मतलब हो सकता है कि कालेज या
विश्वविद्यालय स्त्री पुरुष में कोई फर्क
नहीं करता। को—एजुकेशन का एक
ही मतलब हो सकता है—कालेज
की दृष्टि में सेक्स—डिफरेंसेस का कोई सवाल
नहीं है।
आखिरी बात, और अपनी चर्चा मैं
पूरी कर दूंगा। एक बात आखिरी।
और वह यह कि अगर एक बेहतर दुनिया
बनानी हो तो स्त्री पुरुष के
समस्त फासले गिरा देने हैं। भिन्नता बचेगी,
लेकिन समान तल पर दोनों को खड़ा कर देना है और ऐसा
इंतजाम करना है कि ‘स्त्री को
स्त्री होने की कांशसनेस’ और
‘पुरुष को पुरुष होने की कांशसनेस’
चौबीस घंटे न घेरे रहे। यह पता
भी नहीं चलना चाहिए। यह
चौबीस घंटे ख्याल भी
नहीं होना चाहिए। अभी तो
हम इतने लोग यहां बैठे हैं, एक स्त्री
आये तो सारे लोगों को खयाल हो जाता है कि
स्त्री आ गयी। स्त्री
को भी पूरा खयाल है कि पुरुष यहाँ बैठे
हुए है। यह अशिष्टता है, अनकल्वर्डनेस
है, असंस्कृति है, असभ्यता है। यह बोध
नहीं होना चाहिए। ये बोध गिरने चाहिए।
अगर ये गिर सकें तो हम एक अच्छे समाज का निर्माण
कर सकते हैं। मेरी बातों को इतने प्रेम और
शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहित हूं।
और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को
प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
एम—एस. कालेज बड़ौदा
16 अगस्त 1969-- ओशो
शैलेश सुरती-अहमदाबाद 

मूल चाणक्य नीति

!!!मूल चाणक्य नीति!!!
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1. जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में मोती उत्पन्न नहीं होता, सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैंनहीं होता, सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।
2. झूठ बोलना, उतावलापन दिखाना, दुस्साहस करना, छल-कपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्रता और निर्दयता - ये सभी स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। चाणक्य उपर्युक्त दोषों को स्त्रियों का स्वाभाविक गुण मानते हैं। हालाँकि वर्तमान दौर की शिक्षित स्त्रियों में इन दोषों का होना सही नहीं कहा जा सकता है।
3. भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, सुंदर स्त्री के साथ संसर्ग के लिए कामशक्ति का होना, प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं।
4. चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति का पुत्र उसके नियंत्रण में रहता है, जिसकी पत्नी आज्ञा के अनुसार आचरण करती है और जो व्यक्ति अपने कमाए धन से पूरी तरह संतुष्ट रहता है। ऐसे मनुष्य के लिए यह संसार ही स्वर्ग के समान है।
5. चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थी सुखी है, जिसकी संतान उनकी आज्ञा का पालन करती है। पिता का भी कर्तव्य है कि वह पुत्रों का पालन-पोषण अच्छी तरह से करे। इसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा सके और ऐसी पत्नी व्यर्थ है जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त न हो।
6. जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।
7. जिस प्रकार पत्नी के वियोग का दुख, अपने भाई-बंधुओं से प्राप्त अपमान का दुख असहनीय होता है, उसी प्रकार कर्ज से दबा व्यक्ति भी हर समय दुखी रहता है। दुष्ट राजा की सेवा में रहने वाला नौकर भी दुखी रहता है। निर्धनता का अभिशाप भी मनुष्य कभी नहीं भुला पाता। इनसे व्यक्ति की आत्मा अंदर ही अंदर जलती रहती है।
8. ब्राह्मणों का बल विद्या है, राजाओं का बल उनकी सेना है, वैश्यों का बल उनका धन है और शूद्रों का बल दूसरों की सेवा करना है। ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वे विद्या ग्रहण करें। राजा का कर्तव्य है कि वे सैनिकों द्वारा अपने बल को बढ़ाते रहें। वैश्यों का कर्तव्य है कि वे व्यापार द्वारा धन बढ़ाएँ, शूद्रों का कर्तव्य श्रेष्ठ लोगों की सेवा करना है।
9. चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।
10. चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार होता है। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएँ, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।
11. वे माता-पिता अपने बच्चों के लिए शत्रु के समान हैं, जिन्होंने बच्चों को ‍अच्छी शिक्षा नहीं दी। क्योंकि अनपढ़ बालक का विद्वानों के समूह में उसी प्रकार अपमान होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है। शिक्षा विहीन मनुष्य बिना पूँछ के जानवर जैसा होता है, इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वे समाज को सुशोभित करें।
12. चाणक्य कहते हैं कि अधिक लाड़ प्यार करने से बच्चों में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए यदि वे कोई गलत काम करते हैं तो उसे नजरअंदाज करके लाड़-प्यार करना उचित नहीं है। बच्चे को डाँटना भी आवश्यक है।
13. शिक्षा और अध्ययन की महत्ता बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य का जन्म बहुत सौभाग्य से मिलता है, इसलिए हमें अपने अधिकाधिक समय का वे‍दादि शास्त्रों के अध्ययन में तथा दान जैसे अच्छे कार्यों में ही सदुपयोग करना चाहिए।
14. चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र के संबंद में भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।
15. चाणक्य के अनुसार नदी के किनारे स्थित वृक्षों का जीवन अनिश्चित होता है, क्योंकि नदियाँ बाढ़ के समय अपने किनारे के पेड़ों को उजाड़ देती हैं। इसी प्रकार दूसरे के घरों में रहने वाली स्त्री भी किसी समय पतन के मार्ग पर जा सकती है। इसी तरह जिस राजा के पास अच्छी सलाह देने वाले मंत्री नहीं होते, वह भी बहुत समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता। इसमें जरा भी संदेह नहीं करना चाहिए।
17. चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह वेश्या धन के समाप्त होने पर पुरुष से मुँह मोड़ लेती है। उसी तरह जब राजा शक्तिहीन हो जाता है तो प्रजा उसका साथ छोड़ देती है। इसी प्रकार वृक्षों पर रहने वाले पक्षी भी तभी तक किसी वृक्ष पर बसेरा रखते हैं, जब तक वहाँ से उन्हें फल प्राप्त होते रहते हैं। अतिथि का जब पूरा स्वागत-सत्कार कर दिया जाता है तो वह भी उस घर को छोड़ देता है।
18. बुरे चरित्र वाले, अकारण दूसरों को हानि पहुँचाने वाले तथा अशुद्ध स्थान पर रहने वाले व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। आचार्य चाणक्य का कहना है मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए। वे कहते हैं कि मनुष्य की भलाई इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके, दुष्ट व्यक्ति का साथ छोड़ दे।
19. चाणक्य कहते हैं कि मित्रता, बराबरी वाले व्यक्तियों में ही करना ठीक रहता है। सरकारी नौकरी सर्वोत्तम होती है और अच्छे व्यापार के लिए व्यवहारकुशल होना आवश्यक है। इसी तरह सुंदर व सुशील स्त्री घर में ही शोभा देती है।
शैलेश सुरती-अहमदाबाद 
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आभामंडल विज्ञान

                                                                                         आभामंडल विज्ञान
दोस्तों प्रणाम आज इस विषय पर अपने विचार सबसे साँझा करना चाहूँगा , आभामंडल हमारे व्यक्तित्व की परछाई होती हे । किसी का आभा मंडल बहुत सकरात्मक हो सकता हे किसी नकरात्मक । हमारे मन में विचारो की जंग चलती रहती हे ,स्तिथि के अनुसार वेसे भाव हमारे चेहरे पर हमारी बॉडी लैंग्वेज पर साफ़ देखे जा सकते हे जिससे हमारे आभामंडल का निर्माण होता हे । तो एक बात समज में आती हे की अगर हम अपने भीतर की स्तिथि के साथ ora भी बनता बिगड़ता हे ।
मुझे अपने जीवन मे कुछ बुद्द पूरषो से मिलने का सोभाग्य मिला है ,आज मे आपको कुछ लक्ष बन ताना चाहूगा जिससे आप उन्हे पहचान सके । मानो दस लोग बैठे है तो ज्ञानी का स्थान अहम के तल पर रिक्त हो गा ,उसके होने का कोइ भार नही होगा पर शारिरक तोर पर वो मोजुद होगा । यही उसके प्रति आकषॅन का कारन है ,वह कुदरत के साथ एक है तो उसका ओरा भी सारे ब्रहमाडं कै रूप ले लेका है । उसके भीतर वायु अग्नि पृथ्वी ओर आकाश सतुलनंमे आ गए है । जब वो मिल ही गयाकुदरत से तो ब्रहमाडं हो ही जाएगा । उसमे धरती सी सहनशीलता ,अग्नि सा तेज ,जल की शीतलता ,वायु की सवेदंनशीलता तथा आकाश की विशालता है प्रगाड़ है ।आप कल्पना करे कोइ एसा वयक्तित्व के स्वामी जब आप सपॅक मे आते है तो आपके भीतर की उजॉ ओर भाव भी हिलोरे लेने लगते है । जैसे एक बड़े चुम्बक के पास अगर कुछ छोटे चुबकं जाए तो उनकी क्या स्थिति होगी वो इतने आकषॅन मे आ जाए की उससे चिपक जाएगे । एसे ही साधक जब किसी महात्मा से मिलता है तोवो भी उसके चरनो मे झुक जाता है उसकी नजर की गहराइ को देखने की कोशिश करता है । लेकिन चुबकं चाहे जितना ही बड़ा क्यु न हो वो लकड़ व अन्य धातुओ को आकषॅति नही कर सकता ,कहने का भाव है साधक को ही सिद्द आकषिॅत कर सकता है जिसमे साधक के गुन है ।
अब मै आपको एक प्रयोग बताता हू जिससे आप अपने आभा मडंल का आकंलन कर सकते है व उसे बड़ा सकते है ,एक दीया या मोमबती जलाकर उसके सामने आखं बदं कर बैठे ,उसकी दूरी उतनी ो शुरूआत मे कि जिससे आपको उसकी आचं सपष्ट महसूस हो ,फिर धीरे धीरे दूरी बड़ाते जाए दस दस मिनट के अतंराल मे ,एक बात ध्यान रखे की आपको उसकी आचं निरतंर महसूस होती रहे दूरी उतनी ही हो , जितनी दूर तक आप आचं महसूस करते है उतना आपका आभा मडलं है ,वो उतनी दूर तक प्रभावित करता है । यह इसी प्रयोग से बड़ाया भी जा सकता है । आप यह प्रयोग निरतंर करे व अपने आभामडंल का प्रभाव दुसरो पर सपष्ट देखेगे । हा जब यह प्रयोग करे तो अधेरा हो तो बहतर है ।
आभामडंल जिस तरह का होगा उसी तरह की शक्तियो से सपॅक करने सक्षमता आ सकती है । आपने सुना होगा गनेश के उपासक को गनेश ,शिव के उपासक को शिव या किसी महात्मा के उपदेश मानने वाले को उस महात्मा का अतंर मे दशॅन होता है यह उस उपदेश को मानने से आभामडलं मे आए बदलाव के कारन भी सभवं होता है । अतंर मे मनोस्थिति के अनुसारा आपकी तरगें रूपातरिंत होती है ,व दूसरो को भी वो प्रभावित करती है । जो बहूत नकरात्मक हो जाते है वो बुरी शक्तियोे के प्रभाव मे भी आ जाते है यह आम देखा जा सकता है इस सबका कारन आभामडंल विज्ञान है ,किसी साधक ने इस विषय पर कहने को प्रेरित किया था उसका व आप सबका धन्यावाद ।
शैलेश सुरती-अहमदाबाद 

कर्म का फल

*☀  कर्म भोग  ☀* ➖➖-➖-➖➖ 🔷  पूर्व जन्मों के कर्मों से ही हमें इस जन्म में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नि, प्रेमी-प्रेमिका, मित्र-शत्रु, ...