स्त्री के छू लैने से भी अपवित्र--
आखिर ऐसी क्या बुराई है स्त्री में...
अभी जब मैं बम्बई था कुछ दिन पहले, एक
मित्र ने आकर मुझे खबर दी कि एक बहुत
बड़े संन्यासी वहां प्रवचन कर रहे है।
आपने उनके प्रवचन सुने होंगे, नाम तो
काही होगा। वह प्रवचन कर रहे
हैं। भगवान की कथा कर रहे हैं! या
कुछ कर रहे हैं, स्त्री
नहीं छू सकती हैं उन्हें!
एक स्री अजनबी
आयी होगी! उसने उनके पैर छू
लिए! तो महाराज भारी कष्ट में पड़ गये
हैं! अपवित्र हो गये है! उन्होने सात दिन का
उपवास किया है शुद्ध के लिए! जहा दस पन्द्रह
हजार स्रियां पहुंचती थीं,
वहाँ सात दिन के उपवास के कारण एक लाख स्रियां
इकट्ठी होने लगीं कि यह
आदमी असली साधु है!
स्रियां भी यही
सोचती है कि जो उनके छूने से अपवित्र हो
जायेगा, असली साधु है! हमने उनको
समझाया हुआ है। नहीं तो वहां एक
स्त्री भी नहीं
जानी थी फिर। क्योंकि
स्त्री के लिए भारी अपमान
की बात है।
लेकिन अपमान का खयाल ही मिट गया है।
लम्बी गुलामी अपमान के खयाल
मिटा देती है। लाख स्रियां वहां
इकट्ठी हो गयी है!
सारी बम्बई में यही चर्चा है
कि यह आदमी है असली
साधु! स्त्री के छूने से अपवित्र हो गया
है! सात दिन का उपवास कर रहा है! उन महाराज
को किसी को पूछना चाहिए, पैदा किस से हुए
थे? हड्डी, मांस, मज्जा किसने बनाया था?
वह सब स्त्री से लेकर आ गये हैं। और
अब अपवित्र होते है स्त्री के छूने से।
हद्द कमजोर साधुता है, जो स्त्री के छूने
से अपवित्र हो जाती है! लेकिन
इन्ही सारे लोगों की
लम्बी परपरा ने स्त्री को
दीन—हीन और
नीचा बनाया है। और मजा यह है—मजा
यह है, कि यह जो दीन—
हीनता की लम्बी
परपरा है, इस परंपरा को तो स्त्रियां ही
पूरी तरह बल देने में अग्रणी
है! कभी के मंदिर मिट जायें और
कभी के गिरजे समाप्त हो जायें—स्रियां
ही पालन पोषण कर रही
है मंदिरो, गिरजों, साधु, संतो—महंतों का। चार स्रियां
दिखायी पड़ेगी एक साधु के पास,
तब कही एक पुरुष दिखायी
पड़ेगा। वह पुरुष भी अपनी
पत्नी के पीछे बेचारा चला आया
हुआ होगा।
तीसरी बात मैं आप से यह
कहना चाहता हू कि जब तक हम
स्त्री—पुरुष के बीच के ये
अपमानजनक फासले, ये अपमानजनक दूरियां—कि छूने से
कोई अपवित्र हो जायेगा—नहीं तोड़ देते
हैं, तब तक शायद हम स्त्री को समान
हक भी नहीं दे सकते।
को—एजुकेशन शुरू हुई है। सैकड़ों विश्वविद्यालय,
महाविद्यालय को—एजुकेशन दे रहे हैं। लड़कियां
और लड़के साथ पढ़ रहे हैं। लेकिन बड़ी
अजीब—सी हालत
दिखायी पड़ती है। लड़के एक
तरफ बैठे हुए है! लड़कियां दूसरी तरफ
बैठी हुई हैं! बीच में पुलिस
की तरह प्रोफेसर खड़ा हुआ है!
यह कोई मतलब है? यह कितना अशोभन है,
अनकल्वर्ड है। को—एजुकेशन का अब एक
ही मतलब हो सकता है कि कालेज या
विश्वविद्यालय स्त्री पुरुष में कोई फर्क
नहीं करता। को—एजुकेशन का एक
ही मतलब हो सकता है—कालेज
की दृष्टि में सेक्स—डिफरेंसेस का कोई सवाल
नहीं है।
आखिरी बात, और अपनी चर्चा मैं
पूरी कर दूंगा। एक बात आखिरी।
और वह यह कि अगर एक बेहतर दुनिया
बनानी हो तो स्त्री पुरुष के
समस्त फासले गिरा देने हैं। भिन्नता बचेगी,
लेकिन समान तल पर दोनों को खड़ा कर देना है और ऐसा
इंतजाम करना है कि ‘स्त्री को
स्त्री होने की कांशसनेस’ और
‘पुरुष को पुरुष होने की कांशसनेस’
चौबीस घंटे न घेरे रहे। यह पता
भी नहीं चलना चाहिए। यह
चौबीस घंटे ख्याल भी
नहीं होना चाहिए। अभी तो
हम इतने लोग यहां बैठे हैं, एक स्त्री
आये तो सारे लोगों को खयाल हो जाता है कि
स्त्री आ गयी। स्त्री
को भी पूरा खयाल है कि पुरुष यहाँ बैठे
हुए है। यह अशिष्टता है, अनकल्वर्डनेस
है, असंस्कृति है, असभ्यता है। यह बोध
नहीं होना चाहिए। ये बोध गिरने चाहिए।
अगर ये गिर सकें तो हम एक अच्छे समाज का निर्माण
कर सकते हैं। मेरी बातों को इतने प्रेम और
शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहित हूं।
और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को
प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
एम—एस. कालेज बड़ौदा
16 अगस्त 1969-- ओशो
मित्र ने आकर मुझे खबर दी कि एक बहुत
बड़े संन्यासी वहां प्रवचन कर रहे है।
आपने उनके प्रवचन सुने होंगे, नाम तो
काही होगा। वह प्रवचन कर रहे
हैं। भगवान की कथा कर रहे हैं! या
कुछ कर रहे हैं, स्त्री
नहीं छू सकती हैं उन्हें!
एक स्री अजनबी
आयी होगी! उसने उनके पैर छू
लिए! तो महाराज भारी कष्ट में पड़ गये
हैं! अपवित्र हो गये है! उन्होने सात दिन का
उपवास किया है शुद्ध के लिए! जहा दस पन्द्रह
हजार स्रियां पहुंचती थीं,
वहाँ सात दिन के उपवास के कारण एक लाख स्रियां
इकट्ठी होने लगीं कि यह
आदमी असली साधु है!
स्रियां भी यही
सोचती है कि जो उनके छूने से अपवित्र हो
जायेगा, असली साधु है! हमने उनको
समझाया हुआ है। नहीं तो वहां एक
स्त्री भी नहीं
जानी थी फिर। क्योंकि
स्त्री के लिए भारी अपमान
की बात है।
लेकिन अपमान का खयाल ही मिट गया है।
लम्बी गुलामी अपमान के खयाल
मिटा देती है। लाख स्रियां वहां
इकट्ठी हो गयी है!
सारी बम्बई में यही चर्चा है
कि यह आदमी है असली
साधु! स्त्री के छूने से अपवित्र हो गया
है! सात दिन का उपवास कर रहा है! उन महाराज
को किसी को पूछना चाहिए, पैदा किस से हुए
थे? हड्डी, मांस, मज्जा किसने बनाया था?
वह सब स्त्री से लेकर आ गये हैं। और
अब अपवित्र होते है स्त्री के छूने से।
हद्द कमजोर साधुता है, जो स्त्री के छूने
से अपवित्र हो जाती है! लेकिन
इन्ही सारे लोगों की
लम्बी परपरा ने स्त्री को
दीन—हीन और
नीचा बनाया है। और मजा यह है—मजा
यह है, कि यह जो दीन—
हीनता की लम्बी
परपरा है, इस परंपरा को तो स्त्रियां ही
पूरी तरह बल देने में अग्रणी
है! कभी के मंदिर मिट जायें और
कभी के गिरजे समाप्त हो जायें—स्रियां
ही पालन पोषण कर रही
है मंदिरो, गिरजों, साधु, संतो—महंतों का। चार स्रियां
दिखायी पड़ेगी एक साधु के पास,
तब कही एक पुरुष दिखायी
पड़ेगा। वह पुरुष भी अपनी
पत्नी के पीछे बेचारा चला आया
हुआ होगा।
तीसरी बात मैं आप से यह
कहना चाहता हू कि जब तक हम
स्त्री—पुरुष के बीच के ये
अपमानजनक फासले, ये अपमानजनक दूरियां—कि छूने से
कोई अपवित्र हो जायेगा—नहीं तोड़ देते
हैं, तब तक शायद हम स्त्री को समान
हक भी नहीं दे सकते।
को—एजुकेशन शुरू हुई है। सैकड़ों विश्वविद्यालय,
महाविद्यालय को—एजुकेशन दे रहे हैं। लड़कियां
और लड़के साथ पढ़ रहे हैं। लेकिन बड़ी
अजीब—सी हालत
दिखायी पड़ती है। लड़के एक
तरफ बैठे हुए है! लड़कियां दूसरी तरफ
बैठी हुई हैं! बीच में पुलिस
की तरह प्रोफेसर खड़ा हुआ है!
यह कोई मतलब है? यह कितना अशोभन है,
अनकल्वर्ड है। को—एजुकेशन का अब एक
ही मतलब हो सकता है कि कालेज या
विश्वविद्यालय स्त्री पुरुष में कोई फर्क
नहीं करता। को—एजुकेशन का एक
ही मतलब हो सकता है—कालेज
की दृष्टि में सेक्स—डिफरेंसेस का कोई सवाल
नहीं है।
आखिरी बात, और अपनी चर्चा मैं
पूरी कर दूंगा। एक बात आखिरी।
और वह यह कि अगर एक बेहतर दुनिया
बनानी हो तो स्त्री पुरुष के
समस्त फासले गिरा देने हैं। भिन्नता बचेगी,
लेकिन समान तल पर दोनों को खड़ा कर देना है और ऐसा
इंतजाम करना है कि ‘स्त्री को
स्त्री होने की कांशसनेस’ और
‘पुरुष को पुरुष होने की कांशसनेस’
चौबीस घंटे न घेरे रहे। यह पता
भी नहीं चलना चाहिए। यह
चौबीस घंटे ख्याल भी
नहीं होना चाहिए। अभी तो
हम इतने लोग यहां बैठे हैं, एक स्त्री
आये तो सारे लोगों को खयाल हो जाता है कि
स्त्री आ गयी। स्त्री
को भी पूरा खयाल है कि पुरुष यहाँ बैठे
हुए है। यह अशिष्टता है, अनकल्वर्डनेस
है, असंस्कृति है, असभ्यता है। यह बोध
नहीं होना चाहिए। ये बोध गिरने चाहिए।
अगर ये गिर सकें तो हम एक अच्छे समाज का निर्माण
कर सकते हैं। मेरी बातों को इतने प्रेम और
शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहित हूं।
और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को
प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
एम—एस. कालेज बड़ौदा
16 अगस्त 1969-- ओशो
शैलेश सुरती-अहमदाबाद
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